एक गाँव में धनी व्यक्ति था,
लेकिन वह कंजूस बहुत था।
धन दौलत की कमी नहीं थी,
स्वर्ण मोहर भंडार बहुत था।
एक घड़े में रख कर मोहरें,
घर के पीछे गाड़ दिया था।
नहीं चलेगा पता किसी को
ऐसा उसने मान लिया था।
ऱोज रात वह पीछे जा कर
घड़ा निकाल के घर में लाता।
एक एक मोहर को गिन कर
फिर से घड़ा गाड़ वह आता।
उसका एक पड़ोसी एक दिन
उससे मिलने घर पर आया।
शहर भेजने बेटे को पढ़ने
वह कुछ कर्ज माँगने आया।
बोला सेठ पड़ोसी से अपने
अभी न उसके पास है पैसा।
उसका काम चल रहा मंदा,
आयेगा फिर कहाँ से पैसा।
बहुत निराश लाचार पडोसी,
वापिस आया अपने घर में।
देख परेशानी भी पड़ोस में,
दया भाव न जागा उर में।
प्रतिदिन की तरह रात्रि को
सेठ घड़ा निकाल कर लाया।
सोने की मोहरों को गिन कर
फिर उसने वह घड़ा दबाया।
एक चोर यह देख रहा था,
उसने मौके का लाभ उठाया।
ज़मीं खोद कर घड़ा निकाला
और सभी धन लिया चुराया।
उसमें फिर कंकड़ भर करके,
गाड़ दिया मिट्टी के अन्दर।
सेठ रोज़ की तरह रात्रि को,
घड़ा निकाल ले गया अन्दर।
उसने जैसे ही घड़ा था खोला,
चौंका वो उसमें कंकड़ देख कर.
मैं तो बिल्कुल बरबाद हो गया,
लगा वह रोने चीख चीख कर।
सुन कर शोर पड़ोसी आया,
सेठ ने उसको हाल सुनाया.
सुन कर बात पड़ोसी बोला
कहाँ से उस पर पैसा आया.
जब मैंने मांगा था पैसा,
तुमने कहा नहीं है पैसा.
झूठ कहा क्यूँ तुमने मुझसे,
मेरे पास नहीं है पैसा.
इतने सालों से गडा हुआ था
नहीं जरूरत पड़ी थी धन की.
केवल होता था शौक तुम्हारा
गिनती करना केवल धन की.
जिस धन की हो नहीं जरूरत
वह धन कंकड़ सम ही होता.
कंकड़ गिनो या स्वर्ण मोहरें
इसमें तुम्हें फ़र्क क्या पड़ता.
सेठ ने अपनी गलती समझी,
नहीं करूंगा लालच धन का.
परमारथ में उपयोग करूँगा,
नहीं करूँगा संचय धन का.
जिस धन का उपयोग नहीं हो,
वह कंकड़ पत्थर सम होता.
वह ही धन है धन कहलाता,
जिसका सद उपयोग है होता.
....कैलाश शर्मा .